पूछता घर का पता जानकारों से,
ना जाने कहाँ ग़ुम हूँ मैं|
हर ओर एक राह, एक गंतव्य है
कुछ भी हालाँकि दूर नहीं,
लेकिन फिर भी कहीं ग़ुम हूँ मैं|
अँधेरा है, कहीं कुछ कृतृम रौशनी भी|
ये रौशनी भी मगर, अँधेरे से कम नहीं
राह दिखाना तो दूर, कुछ छुपाती है ये
इस रौशनी में भी, हाय! क्यों ग़ुम हूँ मैं|
खड़ा हूँ हाथ में मशाल लिए
भटकों को पथ दिखाता, बेफिक्र;
किन्तु कहीं ग़ुम हूँ मैं|
ग़ुम हूँ मैं उन राहों में
जो किसी नक़्शे में नहीं, और
जिस तरफ कोई आता-जाता नहीं
हाँ लेकिन ग़ुम हूँ मैं|
awesome.....
ReplyDelete"राह दिखाना तो दूर, कुछ छुपाती है ये"
ReplyDeleteBeautifully written JP. Awesome.
भला हुआ जो जान गये तुम
ReplyDeleteअपनी बेहोशी को पहचान गये तुम
अब जिसकी तुझे तलाश है,
वह मंज़िल बहुत पास है
अब मुस्कुरा और पंख फैला
हो उन्मुक्त घूम ले नभ सारा
रास्ता नहीं अब मंज़िल तय कर
होने को है पूरा उजियारा |
@JP guru tussi chha gaye...usually i don't read/like poetry but this one i must say is artistically written..
ReplyDelete@kamal yaara tumne bhi phodu likha hai...kaatil meri jaan :)
deeply thoughtful bhai... :)
ReplyDeletebhaau badi baanki likhi ri tain ye...maja aaye gaya paddi kane.
ReplyDeletebahut ache yar
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