पूछता घर का पता जानकारों से,
ना जाने कहाँ ग़ुम हूँ मैं|
हर ओर एक राह, एक गंतव्य है
कुछ भी हालाँकि दूर नहीं,
लेकिन फिर भी कहीं ग़ुम हूँ मैं|
अँधेरा है, कहीं कुछ कृतृम रौशनी भी|
ये रौशनी भी मगर, अँधेरे से कम नहीं
राह दिखाना तो दूर, कुछ छुपाती है ये
इस रौशनी में भी, हाय! क्यों ग़ुम हूँ मैं|
खड़ा हूँ हाथ में मशाल लिए
भटकों को पथ दिखाता, बेफिक्र;
किन्तु कहीं ग़ुम हूँ मैं|
ग़ुम हूँ मैं उन राहों में
जो किसी नक़्शे में नहीं, और
जिस तरफ कोई आता-जाता नहीं
हाँ लेकिन ग़ुम हूँ मैं|